बलिया। सन 2007 में अस्तित्व खो चुके सीडीए का जिन 2019 में अलाउद्दीन के चिराग से बाहर आ गया और उसने थोड़ा सा अपना स्वरूप बदलते हुए केमिस्ट एंड ड्रजिस्ट एसोसिएशन एंड वेलफेयर सोसायटी का रूप ले लिया। अच्छी बात अन्य जनपदों की तरह यहां भी संगठन पर संगठन बनते रहे इसमें कोई हर्ज नहीं है लेकिन जिस संगठन को दवा व्यवसायियों की प्रांतीय अथवा राष्ट्रीय संगठनों की संबद्धता प्राप्त हो उसे ही समाज में मान्यता मिलती है और मिलना भी चाहिए। वैसे तो पीडीएफ यूपी द्वारा निष्कासित लोगों को यह आरोप नहीं लगाना चाहिए कि उन्हें संगठन से बीसीडी अध्यक्ष द्वारा बाहर का रास्ता दिखाया गया है लेकिन उन्होंने सीधा सीधा आरोप स्थानीय होटल में प्रेस वार्ता के दौरान लगा दिया जिसके कोई आधार नहीं है यदि आधार हैं तो उन्होंने स्वयं विभिन्न समाचार पत्रों के माध्यम से नाता तोड़ने का खबर क्यों प्रकाशित कराई। दूसरा सवाल यह है कि की बकौल उनके की सुनील कुमार शर्मा और राजेंद्र सिंह की शिकायत पर तत्कालीन जिलाधिकारी द्वारा संगठन के संचालन पर रोक लगाई गई थी और अरुण कुमार गुप्ता के अनुरोध पर पीएनबी के शाखा प्रबंधक ने 15 मिनट के लिए बैंक संचालन की अनुमति दी थी जिस दौरान बीसीडी अध्यक्ष आनंद सिंह ने ₹151000 अकाउंट से निकाल लिए, यहां यह प्रश्न है की क्या बीसीडी अध्यक्ष को महामंत्री अरुण कुमार गुप्ता द्वारा बताया गया था कि हम अकाउंट खुलवा रहे हैं और आप पैसे निकाल लीजिए शाहरुख का भी उन्होंने कोई पुख्ता बैलेंस शीट आदि नहीं प्रस्तुत किया। जबकि वे 26 11 2018 तक पीसीडीए के महामंत्री पद पर बने रहे और उन्होंने संस्था के पंजीकरण और हिसाब किताब के संबंध में लिखित रूप में कोई जवाब सवाल नहीं किया इसका भी कोई प्रमाण उन्होंने वार्ता के दौरान पत्र प्रतिनिधियों के सामने नहीं रखा। जातक संस्था के कार्यालय का प्रश्न उठता है संस्था के कार्यालय के लिए अधूरे भवन के काम को पूरा कराने का आश्वासन देकर तत्कालीन सीजीए के पदाधिकारियों से उन्होंने जो कमिटमेंट किया था उसे पूरा करने में यदि कोई बाधा उत्पन्न कर रहा था तो उन्हें इसका विरोध सार्वजनिक रूप से कार्यकारिणी के सदस्यों के सम्मुख करना चाहिए था उन्होंने क्यों नहीं किया। बल्कि 28 नवंबर केशव भवन बैठक में उन्होंने स्वीकार किया की संस्था का ₹80 हजार रुपया उनके पास है। संस्था के महामंत्री होने के नाते उनका कर्तव्य बनता था के कोषाध्यक्ष और महामंत्री को बुलाकर चुनाव हारने के उपरांत उनके कार्य भार उन्हें सौंप देते परंतु इसकी भी जहमत उन्होंने नहीं उठाई। 2007 के बाद से चुनाव पूर्व तक पीसीडीए के महामंत्री की हैसियत से उन्होंने कोई भी ऐसा कार्य अंजाम नहीं दिया जिससे संस्था का वजूद सामने आए, ना तो पंजीकरण और ना ही सदस्यता शुल्क के बारे में महा मंत्री की हैसियत से उन्होंने कोई ब्यौरा प्रस्तुत किया। पीसीडीए द्वारा दवा व्यवसायियों की समस्याओं पर बार बार मीटिंग होती रही यह और बात है की संस्था द्वारा किसी सेमिनार अथवा बड़े कार्यक्रम का आयोजन विगत कार्यकाल में नहीं किया गया। हास्यास्पद तो यह रहा कि अरुण कुमार गुप्ता द्वारा मुख्यालय और संबद्ध संस्था से स्वयं नाता तोड़ा गया और क्षेत्रीय कथित संगठन के अध्यक्ष पद को स्वीकार किया गया। कहना ना होगा कि संस्था के जिम्मेदार पद पर रह चुके फाउंडर मेंबर द्वारा अपने ही हाथों बनाई गई संस्था को बर्बाद होते देखा गया और खामोशी अख्तियार कर ली गई। यहां यह भी कहना अनुचित ना होगा की इसके लिए अरुण कुमार गुप्ता भी पूर्ण रूप से जिम्मेदार है। जहां तक चंदे के रूप में वसूले गए 35हजार रुपयों का प्रश्न है वह तो सार्वजनिक रूप पर जाहिर है की बाढ़ आपदा में फंसे लोगों की सहायता में बीसीडीए ने बाढ़ सहायता में देखिए जिस दौरान में भी मौजूद रहे। चुनाव हारने के बाद आखिर कौन सी आवश्यकता पड़ी की सीडीए एंड वेलफेयर सोसायटी को अस्तित्व में लाना पड़ा क्या इससे जनपद के दवा व्यवसायियों की समस्याओं का समाधान हो सकेगा क्योंकि जनपद के समस्त दवा व्यवसाई सीडीए के कथित पदाधिकारियों के चरित्र और कार्यशैली से भलीभांति परिचित हैं कि वे अपना अस्तित्व बचाने के लिए कुछ भी करने से परहेज नहीं करते। यह बात और है कि बीसीडी है 2007 में अस्तित्व में आई और पुराने संगठन के सभी सदस्य और पदाधिकारी एकजुट होकर दवा व्यवसायियों के हित में कार्य करने लगे। साथ साथ मीटिंग में बैठे झगड़ते फिर एक साथ चल देते थे आखिर ऐसा क्या हुआ चीन में दो धड़े बन गए काफी छानबीन के बाद पता चला कि पुराने पदाधिकारियों में आज के वरिष्ठ वेतन दवा व्यवसाई और सीधी है संरक्षक बनने की हमेशा इच्छा रखने वाले लोग दवा व्यवसायियों पर अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाते रहे लेकिन चुनाव के बाद इनका यह स्थिति भी छिन गया यह गाना अनुचित ना होगा कि जब कशिश किसी घरेलू झगड़े में कोई बाहरी व्यक्ति का हस्तक्षेप बढ़ जाता है तो घरेलू झगड़े में बंटवारे की नौबत आ जाती है जिसका एक स्वरुप कल की प्रेस वार्ता के बाद सामने आया। और आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया जिसमें जनपद के दवा व्यवसायियों का कोई हित नजर नहीं आ रहा है बल्कि कुछ लोग अपने स्वार्थ सिद्धि सफल नजर आ रहे हैं। बिल्थरा रोड के हिटलर शाही फरमान से केवल बीसीजी के सदस्य प्रभावित होंगे यह कहना भी उचित ना होगा। हर संस्था का अपना वैधानिक स्वरूप होता है और उसके तहत संस्था का संचालन हुआ करता है पंजीकरण मात्र प्राप्त कर लेने से कोई संस्था वैद्य अथवा अवैध नहीं होती। जब आप सीडीए के पदाधिकारी हैं आप अपना स्वरूप दो व्यवसायियों के सामने और समाज के प्रबुद्ध लोगों के सामने केवल अपने कारनामों के माध्यम से पूर्व के सारे गिले-शिकवे मिटाकर अपना किरदार पेश कर प्रमाणित कर सकते हैं। लेकिन जिस संस्था से अपने नाता तोड़ लिया उस पर उंगली उठाने के पूर्व आपके पास सभी साक्ष्य और प्रमाण लोगों के सामने पेश करना चाहिए था परंतु आप और आपकी संस्था के अन्य पदाधिकारियों द्वारा ना तो बैंक की बैलेंस शीट प्रस्तुत की गई और ना ही 151 लाखों रुपए आनंद सिंह द्वारा निकाले जाने का कोई प्रमाण ही पटल पर रखा गया ऐसी स्थिति में एक मशवरा है कि आप अपनी संस्था में पारदर्शिता के साथ काम करते रहें ताकि पूर्व की भात दवा व्यवसाय ठगी का शिकार ना हो सके। संसार वजूद में आती रहती हैं लेकिन उनकी पहचान उनकी कार्यशैली और व्यवहार पर डिपेंड करता है कि वह क्या करती हैं हमें आशा है की सीडीए पारदर्शिता के साथ कार्यालय भवन का निर्माण सदस्यों को समय-समय पर सेमिनार और बैंक संचालन की जिम्मेदारी वफादारी के साथ सौंपेगी। और जनपद के दवा व्यवसायियों के साथ समाज के दबे कुचले लोगों का सहयोग करेगी।
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